Sunday, November 30, 2014

लहरों सा मन गिरता उठता

जून २०१४ 
‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं हूँ’ तथा ‘मैं हूँ’ से ‘है’ तक की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है. जब ‘है’ की अनुभूति होती है तो कोई भेद नहीं रहता. समाधि की अवस्था तभी मिलती है. मन जब अपने मूल स्वरूप में टिक जाये तत्क्षण समाधि घटती है. आत्मा शुद्ध चिन्मात्र सत्ता है, वह आकाशवत है. मन उसमें उठने वाला एक आभास ही तो है. मन को जब हम अलग सत्ता दे देते हैं तभी बंधते हैं. जहाँ द्वैत है वहाँ दुःख है. विचार भी उसी आत्मा की लहरें हैं जो आनन्दमयी है. भीतर उठने वाले सारे संशय, डर तथा भ्रम उसी आत्मा से ही तो उपजे हैं, वे दूसरे नहीं हैं, उनसे कैसा डर. विचार तो शून्य से उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाने वाला है. सागर क्या अपनी लहरों से डरेगा चाहे लहर कितनी भी बलशाली  क्यों न हो, आकाश क्या बादलों की गर्जन से डरेगा ?  आत्मा सागर की तरह गहरी और आकाश की तरह अनंत है, वह निर्मल है, वह जहाँ है वहाँ न कोई गुण है न दुर्गुण, वहाँ कुछ भी नहीं है, निर्दोष, अनछुई वह शुद्ध प्रकाश है. प्रकाश का कोई आकार नहीं, वह उससे भी सूक्ष्म है. 

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