हम जीवन भर एक स्वप्न से
दूसरे स्वप्न में ही तो प्रवेश करते रहे हैं ! हमारा जीवन अभ्यास और वैराग्य के बल
पर ही इस चक्र से निकल सकता है. द्रष्टा में रहने का अभ्यास तथा संसार से वैराग्य,
संसार जो पल-पल बदल रहा है, नाशवान है. हम जब संसार में ज्यादा उलझ जाते हैं तो
स्वयं को भूल जाते हैं और भीतर की शांति और चैन से हाथ धो बैठते हैं. हमारे पास जो
बहुमूल्य है वह है प्रेम, वही ईश्वर है, वही सत्य है, उसकी कीमत कुछ भी नहीं, वह
तो बिन मोल मिलता है, बस दिशा बदलनी है, उसे खोजना नहीं है वह पहले से ही है केवल
उसकी ओर देखना भर है. हम उतना सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते, हम सोचते हैं, जो मिला
ही है उसकी क्या चिंता, थोडा संसार भर लें, पर यह भूल जाते हैं यह संसार आज तक
किसी को नहीं मिला !
आप बिल्कुल सही कह रही हैं, भोग को भोग के द्वारा नहीं जीता जा सकता , योग के द्वारा ही इस पर विजय सम्भव है ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार शकुंतला जी
ReplyDelete