अप्रैल २००७
अनात्मा
से सुख लेने की चेष्टा यदि होती है, कुछ करने की इच्छा यदि अभी भी भीतर है, कुछ
करके मान पाने इच्छा ! तो अभी पूर्ण शरणागति नहीं हुई है. आत्मा बलवती होती है जब
हम उससे जुड़ते हैं. जब हम अकर्ता भाव में आ जाते हैं तो जो कुछ भी होता है वह सहज
भाव से होता है. प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर स्वयं को आत्मा रूप के अनुभव में सहजता
ही सबसे बड़ा लक्ष्ण है. हम जितना सहज होकर जीते हैं सभी के साथ आत्मभाव में रहते
हैं. जड़-चेतन दोनों के प्रति सहज प्रेम का अनुभव करते हैं. जो हम नहीं है वह कहना
या मानना ही अहंकार है. यदि हम अभी भी स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि मानते हैं, औरों
के दोष हम तभी देख पाते हैं. दूसरों के दोष देखने से हम कर्म बांधते हैं. खुद के
दोष प्रज्ञा दिखाती है, और इन्हें देखने से हम कर्मों से छूटते जाते हैं !
अति सुन्दर।
ReplyDeleteस्वागत व आभार वीरू भाई
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