मई २०१४
बोलते
समय हमारी वाणी के साथ हमारे भीतर की तरंगे भी प्रभावित करती हैं, वाणी यदि मधुर
होगी तो तरंगे प्रेम लेकर वाणी से पहले ही पहुंच जायेंगी और भीतर यदि कटुता है,
खीझ है, क्रोध है, अहंकार है तो वाणी से पहले वही सब तरंगें लेकर जाएँगी, बात का
असर नहीं होगा बल्कि हमारी बात अभी कही भी नहीं गयी उसके प्रति नकारात्मक भाव पहले
ही जग उठा होगा. भीतर का वातावरण शांत हो, मधुर हो तभी तो तरंगे ऐसी होंगी और ऐसा
तभी सम्भव हो सकता है जब हम भीतर उस जगह रहना सीखें जहाँ कोई विक्षेप नहीं है,
जहाँ एक सी सौम्यता है, जहाँ न अतीत का दुःख है न भविष्य का डर, जहाँ निरंतर
वर्तमान की सुखद वायु बहती है. मन से परे आत्मा के उस आंगन में हम अपना निवास
बनाएं जहाँ प्रेम, आनंद, शान्ति के कुछ है ही नहीं. हम जब जरूरत हो तभी चित्त,
बुद्धि, मन तथा अहंकार के क्षेत्र में जाएँ अपना काम करके तत्क्षण अपने घर में लौट
आयें तब मन में उठे विचार भी शुद्ध होंगे, बुद्धि भी पावन होगी तथा स्मृतियाँ भी
सुखद बनेंगी और शुद्ध अहंकार होगा. वाणी तथा कर्मों की शुद्धता अपने आप आने लगेगी,
ऐसे में हमारी वह शक्ति जो अभी व्यर्थ चिन्तन, वाचन में चली जाती है बचेगी, ध्यान
में लगेगी तथा लोकसंग्रह भी स्वतः ही होने लगेगा.
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