अप्रैल २००७
धर्म
को यदि धारण नहीं किया तो व्यर्थ है, नहीं तो हमारी हालत भी दुर्योधन की तरह हो
जाएगी, जो कहता है मैं धर्म जानता हूँ पर उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म
जानता हूँ पर उससे निवृत्ति नहीं होती. जितनी हम उठा सकें उतनी जिम्मेदारी हमें
उठानी ही चाहिए. जैसे-जैसे हम किसी काम को करने का बीड़ा उठाते हैं वैसे-वैसे हममें
और शक्ति भरती जाती है ! हम स्वयं ही अपनी शक्ति पर संदेह करते हैं और फिर
आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वास्तव में सारे गुण हमारे भीतर ही हैं, यह मानकर चलना
है. अवगुण तो एक आवरण की तरह ऊपर-ऊपर ही हैं. यदि हम शरण में जाते हैं तो ईश्वर की
पवित्रता हमारे सारे दोषों को दूर करने में सहायक होती है. वह पावन है और उसकी
निकटता में हम भी पावन हो जाते हैं. जो शक्ति उससे मिलती है वह सृष्टि के हित में
लगने लगती है, क्योंकि हम स्वयं तो तृप्त हो जाते हैं, जो एक बार सच्चे हृदय से
शरण में गया वह तृप्त ही है !
प्रभु की शरण को प्रेरित करते भाव ... अति सुन्दर ...
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteहमें अपनी शक्ति को पहचानना होगा...बहुत सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeletehttp://aadhyatmikyatra.blogspot.in/
सही कहा है आपने...
Deleteधारियते इति धर्म -जो समाज को बांधे रहता है वह धर्म है उसके रक्षण में ही हमारा अनुरक्षण हैं हम धर्म की रक्षार्थ काम करें ,धर्म हमारी रक्षा करेगा।
ReplyDeleteमन ही मेरा सबसे बड़ा तीर्थ है कर्म प्रेरक है। कर्मयोग सिखाता है मन।
गैस का गुब्बारा ऊपर उठता जाता है। ऊपर दाब (प्रेशर )कम होने से फूलने लगता है फिर फट जाता है। अंदर की वायु बाहर की वायु और आकाश में मिलके आज़ाद हो जाती है। कर्मयोग सिखाता है गुब्बारा। मन मेरा गुब्बारा हो जाए गैस का।
सरल शब्दों में तत्व ज्ञान..आभार !
Deleteअनिता जी ! हमारी स्थिति उस दुर्योधन जैसी है, जो बेचारा कहता है -
ReplyDelete" जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः ।"
शकुंतला जी, दिल तो बच्चा है...उसे प्यार से समझाना होगा..
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