मई २००७
चिदाकाश
ही शून्य है, वहाँ प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं, ध्वनि भी नहीं, बल्कि इसे
देखने वाला शुद्ध चैतन्य है जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी हम
देखते या अनुभव करते हैं सब क्षणिक है नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी
है, अविनाशी है. मृत्यु के बाद भी उसका अनुभव होता है बल्कि कहें वही अनुभव करता
है. जब तक हम उसे मन से पृथक नहीं देख पाते, मन के द्वारा वही सुख-दुःख भोगता है.
अधिक से अधिक उसी में हमें टिकना है. आनंद स्वरूप उस चेतना में जितना-जितना हम
रहना सीख जायेंगे, मृत्यु के क्षण में उतना ही हम शांत रहेंगे. आगे की यात्रा ठीक
होगी. ध्यान में हम उसी में टिकते हैं या टिकने का प्रयास करते हैं. वहाँ कुछ भी
नहीं है, न विचार, न द्रष्टा न दृश्य, न कोई संवेदना, केवल शुद्ध बोध !
बहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी !
ReplyDeletebahut badhiya ji
ReplyDeleteबहुत सार्थक प्रस्तुति..आवश्यकता है आनंद स्वरूप चेतना में स्वयं को समाहित करने की..
ReplyDeleteअच्छा लेख ज्ञान बढाता |
ReplyDeleteउपासना जी, कैलाश जी व आकांक्षा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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