मई २००७
इस जगत में हम जो भी
करेंगे वह अंततः अपने ही साथ करते हैं, यह जगत एक प्रतिध्वनि है. उदास होकर जगत को
देखो तो जगत भी उदास होकर देखता है. हम सोचते हैं क्रोध हम दूसरों पर कर रहे हैं,
तो प्रार्थना करके मन को शांत कर लेते हैं. बुद्ध कह रहे हैं, कृत्य हमारा है,
देर-सबेर लौटेगा, वर्धन छोटा-बड़ा हो सकता है पर लौटेगा जरूर. स्वयं से उपजा कोई भी
विकार स्वयं को वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे लोहे पर लगा जंग लोहे को. किसी भी
कारण से जब दुःख आये तो उसे एकांत में झेल लेना ही उचित है, तो ही हम उस दुःख से निखर
कर वापस आयेंगे, अन्यों को दोषी मानकर प्रतिकार करने वाला एक चक्र में फंस जाता
है. जो कांटे हमने जन्मों-जन्मों में बोये हैं उनसे बच नहीं सकते, जगत तो उसे लाने
में निमित्त भर बनता है.
प्रशंसनीय - प्रस्तुति । अनिता जी ! आपकी लेखनी का पैनापन मुझे बहुत अच्छा लगता है । बधाई ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार शकुंतला जी..
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