जुलाई २००३
“मन की मनसा मिट गयी,
भरम गया सब टूट” जब कोई आग्रह नहीं बचता, मात्र उसी को पाने का आग्रह हो, तब एक ही
क्षण में सदगुरु दृश्य रूपी मैल दूर कराने की क्षमता रखते हैं, पर हमें उसके लिये
स्वयं को तैयार करना है. सकाम भाव से कर्म करने की प्रवृत्ति का नाश हो, मन तुलना न
करे, अच्छे-बुरे की भावना से भी ऊपर उठे, सिर्फ कार्य को नहीं कारण को भी देखे, और
दोनों से निर्लिप्त रहे. यह जगत एक स्वप्न की नाई ही है जो प्रति पल गुजर रहा है.
फिर इस गुजरने वाले दृश्यों को द्रष्टा की नाईं देखने में ही जीवन जा रहा है,
ज्ञान दृश्य और द्रष्टा दोनों को शांत करता है, फिर मात्र एक आत्म सत्ता ही शेष
रहती है, जिसके कारण यह जगत दृश्य मान है, हमें इस स्वप्न में अभिनय करना है, सो
सजग होकर करेंगे कि यह सब तो अभिनय ही है, वास्तव में हम न करते हैं न भोगते हैं,
शरीर करता है और मन भोगता है, हम न मन हैं न शरीर, सो व्यर्थ ही अधिक करने और अधिक
पाने की इच्छा अपने आप शांत हो जाती है, मन में समता की भावना दृढ़ हो जाती है,
भटकन तत्क्षण समाप्त हो जाती है. आत्मा की झलक हमें मिलने लगती है जो भव्य है.
मन में समता की भावना दृढ़ हो जाती है, भटकन तत्क्षण समाप्त हो जाती है. आत्मा की झलक हमें मिलने लगती है,,,,
ReplyDeleteजीवन का ज्ञान देती बेहतरीन प्रस्तुति,,,,
RECENT POST-परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
बहुत सुन्दर लिखा है ..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेख।
ReplyDeleteसिर्फ कार्य को नहीं कारण को भी देखे, और दोनों से निर्लिप्त रहे... तभी सुकून है
ReplyDeleteरश्मि जी, आपका स्वागत व आभार..कभी मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी समय निकाल कर आयें.
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 4/9/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.inपर की जायेगी|
ReplyDeleteराजेश कुमारी जी, स्वागत व आभार !
Deleteधीरेन्द्र जी, रितु जी, इमरान, आप सभी का स्वागत व आभार !
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