अगस्त २००३
शंकर कहते हैं, भज गोविन्दं, भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़ मते...वे मानव को मूढ़
कहते हैं, कितना झकझोरता है उनका वचन, संत निर्भीक होता है, उसे समाज से कुछ तो
चाहिए नहीं वह सिर्फ देता है, और जो देना
जनता है वह डांट भी सकता है. हम वास्तव में कितने धार्मिक हैं इसका इसका पता संत
के सम्मुख जाने से ही चलता है. उनकी बातें एक आईना हैं जिसमें हमें अपना वास्तविक
चेहरा दिखाई देता है. वह सत्यस्वरूप हैं और उनके सम्मुख जाते ही हमारा झूठ उजागर
हो जाता है. हम जो प्रेम से अपने अंतर को भर लेते हैं उनके प्रति, ईश्वर के प्रति,
क्यों कठोर हो जाते हैं जब जगत से व्यवहार करते हैं. ईश्वर को माता-पिता मानकर
आराधनाएं तो करते हैं, पर वास्तविक माता-पिता की सेवा से क्यों घबराते हैं. आदर्शवादिता
की बातें तो बहुत करते हैं पर जीवन में उन्हें उतारने से पीछे हट जाते हैं.
सद्गुरु उस बांसुरी की तरह हैं जो स्वयं पीड़ा सहकर राग उत्पन्न करती है, वह कटती
है, तपती है, विरह की पीड़ा सहती है, तभी कृष्ण के अधरों से लगती है. वैसे ही संत
संत होने पूर्व विरह की आग में जलते हैं, तभी प्रभु का दीदार होता है, और उसके मुख
बन जाते हैं, वह उसकी तरफ से बोलते हैं. हमारे जीवन में स्वार्थ नहीं रहता, झूठा
गर्व नहीं रहता, हम भी प्रभु का साधन बन जाते हैं वह हमसे काम करवाने लगता है, और
हमारे कुशल-क्षेम का भार अपने ऊपर ले लेता है.
संत का बखान किया आपने ..सच ही है सच्चे संत भी 'उसकी ' अनुकम्पा से ही मिलते हैं ..
ReplyDeleteबेहद खुबसूरत रचना
ReplyDeletebahut achchhii tarah samjhaya aapne ....
ReplyDeletebahut abhar ...!!
संत निर्भीक होता है, उसे समाज से कुछ तो चाहिए नहीं वह सिर्फ देता है
ReplyDeleteविप्र, धेनु, सुर, संत हित लीन्ह मनुज अवतार
jinake liye ishwar janm len unaki charchaa ke liye naman
रितु जी, सदा जी, अरुन जी, अनुपमा जी व रमाकांत जी आप सभी का हार्दिक स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसही कहा....सद्गुरु बांसुरी कि तरह होते हैं ।
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