२४ नवम्बर २०१८
जो ‘है’ वह शब्दों
में नहीं कहा जा सकता, जो ‘नहीं’ है उसके कहने का कोई अर्थ नहीं. किन्तु इतना कहना
भी कुछ कहने में ही आता है. संत कहते हैं, परमात्मा को जाना नहीं जा सकता, उसके
बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता हाँ, उसके साथ एक हुआ जा सकता है, उसके होने को
अनुभव किया जा सकता है. उसकी उपस्थिति को उसी तरह दूसरे को नहीं दिखाया जा सकता
जैसे कोई दूर बैठे मित्र को अपने मुल्क की हवा का स्पर्श नहीं करा सकता, सूरज की
किरणों की नरमाई-गरमाई को नहीं भेज सकता, उसके लिए तो उसे स्वयं ही आना पड़ेगा. इसी
तरह हरेक को अपने भीतर स्वयं ही जाना पड़ेगा, जो भीतर जायेगा वही वापस नहीं आएगा, क्यों
कि जो आयेगा वह भी कुछ कह नहीं पायेगा. अध्यात्म का पथ कितना रहस्यमय है इसलिए ही
इसका आकर्षण भी इतना अधिक है. यहाँ जो गया वह जगत में रहकर भी निज स्वभाव में ही
बना रह सकता है.
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