Monday, November 26, 2018

छिपा सांत में है अनंत भी


२६ नवम्बर २०१८ 
अध्यात्म हमें देहाध्यास से छुड़ाकर आत्मा में स्थित होने की कला सिखाता है. जन्म के साथ ही सबसे पूर्व हमारा परिचय अपनी देह के साथ होता है. एक प्रकार से देह को ही हम अपना स्वरूप समझने लगते हैं. जैसे जैसे शिशु बड़ा होता है, उसका परिचय अपने आस-पास के वातावरण व संबंधियों से होता है. उसका नाम उसे सिखाया जाता है, धर्म, राष्ट्रीयता और लिंग के आधार पर उसे उसकी पहचान बताई जाती है. जीवन भर यदि कोई व्यक्ति इसी पहचान को अपना स्वरूप समझता रहे तो वह जीवन के एक विराट सत्य से वंचित रह जाता है. गुरू के द्वारा जब यह पहचान दी जताई है, तब उसका दूसरा जन्म होता है, इसीलिये ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है. यह पहचान उसके वास्तविक स्वरूप की है, जो एक अविनाशी तत्व है. स्वयं के भीतर इसका अनुभव करने के लिए ही गुरू के द्वारा साधना की एक विधि दी जाती है. सभी साधनाओं का एकमात्र लक्ष्य होता है साधक को देहाध्यास से मुक्त कराकर अपने असीमित स्वरूप का भान कराना. यही अध्यात्म विद्या है और यही भारत की जगत को सबसे बड़ी देन है.

4 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भालजी पेंढारकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. बहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !

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  3. आत्म-स्वरुप का ज्ञान ही सबसे बड़ा लक्ष्य और उपलब्धि है...बहुत गहन चिंतन

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    1. सही कहा है आपने..स्वागत व आभार कैलाश जी !

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