७ दिसम्बर २०१८
नदी पर्वत से निकलती
है तो पतली धार की तरह होती है, मार्ग में अन्य जल धाराएँ उसमें मिलती जाती हैं और
धीरे-धीरे वह वृहद रूप धर लेती है. अनेकों बाधाओं को पार करके सागर से जब उसका
मिलन होता है, वह अपना नाम और रूप दोनों खोकर सागर ही हो जाती है. जहाँ से वह पुनः
वाष्पित होगी और पर्वत पर हिम बनकर प्रवाहित होगी. जीवन भी ऐसा ही है, शिशु का मन
जन्म के समय कोरी स्लेट की तरह होता है, माता-पिता, शिक्षक, समाज, राज्य, राष्ट्र
और विश्व उसके मन को गढ़ने में अपना योगदान देते हैं. अनेक विचारों, मान्यताओं व
धारणाओं को समेटे होता है उसके मन का जल. यदि उचित समय पर मार्गदर्शन मिले और मृत्यु
से पूर्व वह पुनः मन को खाली कर पाए, नाम-रूप का त्याग कर समष्टि मन से एक हो जाये
तो वह भी सागर बन सकता है. ऐसा तभी सम्भव है जब मन भी नदी की भांति निरंतर बहता
रहे, किसी पोखरी की भांति उसका जल स्थिर न हो जाये.
No comments:
Post a Comment