१० दिसम्बर २०१८
मन में कामना उठती
है किसी न किसी अभाव का अनुभव करने के कारण. उस अभाव की पूर्ति के लिए हम कर्म में
तत्पर होते हैं. कर्म का एक संस्कार भीतर पड़ता है और भविष्य में उसका निर्धारित फल
भी मिलने ही वाला है. उदाहरण के लिए यदि हमारे भीतर कहीं जाने की कामना उत्पन्न
हुई, इसका अर्थ है हम जहाँ हैं वहाँ कोई अभाव है, गन्तव्य पर जाकर हम पूर्णता का
अनुभव करेंगे. यात्रा के दौरान कितने ही संस्कार मन पर पड़े और लक्ष्य पर पहुँच कर
जिस प्रसन्नता का हमने अनुभव किया, उसे पुनः-पुनः अनुभव करने की नई कामना ने भीतर
जन्म लिया. अब उस स्थान पर भी भीतर अभाव का अनुभव होगा, यही बंधन है. जीवन इसी
चक्र का दूसरा नाम है, हम जिस कामना की पूर्ति के लिए इतना श्रम करते हैं, वह हमें
पुनः वहीँ पहुँचा देती है, जहाँ से हम चले थे. क्या कोई ऐसा क्षण हो सकता है, जब
भीतर कोई अभाव न हो, पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो और हम पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव
करें. मन की धारा यदि बाहर से लौट आए और भीतर की तरफ यात्रा करे एक बिंदु पर आकर
वह स्वयं में खो जाती है और जो शेष रहता है वही सहज विश्राम है, जिसमें कोई अभाव
नहीं रहता.
विश्राम की स्थिति भी स्वयं मन में आये तभी सार्थक है ...
ReplyDeleteनहीं तो ये चक्र चलता रहता है ...
विश्राम भीतर जाकर ही मिलता है..पहले इसकी अभीप्सा फिर पुरुषार्थ तो एक बार करना ही होगा, आभार !
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