१ अक्तूबर २०१८
जो है वह कहने में
नहीं आता जो नहीं है उसके लिए हजार कहा जाये, पानी पर लकीर खींचने जैसा ही है.
आत्मा है, आकाशवत् है, शून्यवत है, उसके बारे में क्या कहा जाये, मन नहीं है, पर
मन के पास हजार अफसाने हैं, अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ..जो अभी हैं
अभी ओस की बूंद जैसे उड़ गयीं. मन एक जगह टिकता ही नहीं. बुद्धि इन दोनों के मध्य
व्यर्थ ही चकराया करती है. कभी आत्मा के दर्पण में स्वयं को देखकर मुग्ध होती है
कभी मन के माया जाल में फंसकर व्यर्थ ही आकुल-व्याकुल हो जाती है. जिसने इस खेल को
देख लिया वह यदि चाहे तो मुक्त हो सकता है, पर जन्मों की आदत है बंधन की, जो मुक्त
होने नहीं देती. जिसने इस खेल को देखा ही नहीं वह तो सुख-दुःख के झूले में डोलता
ही रहेगा. उत्सव जगाने का प्रयत्न करते हैं, व्यर्थ का कचरा घर से बाहर करने का
तात्पर्य है, मन को भी विचारों से खाली करना है, मोह-माया के जाले झाड़ने हैं,
आत्मदीप जलाना है और मिश्री सी मधुर चिति शक्ति को भीतर जगाना है.
सही कहा अनिता दी कि दिप भीतर का जलना चाहिए तभी अंधकार दूर हो सकता हैं।
ReplyDeleteअध्यात्म चिंतन मन की गति शाखा मृग सी कुलाचें मन की अचिन्त्य स्वरूप आत्मा का सबको आलोकित करता वैयक्तिक अनुभव सांझा किया है आपने डायरी की पृष्ठों से। आभार।
ReplyDeletesatshriakaljio.blogspot.com
veeruji05.blogspot.com
अध्यात्म चिंतन मन की गति शाखा मृग सी कुलाचें मन की अचिन्त्य स्वरूप आत्मा का सबको आलोकित करता वैयक्तिक अनुभव सांझा किया है आपने डायरी की पृष्ठों से। आभार।
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