जनवरी २००८
ध्यान क्या
है ? जैसे कोई यह नहीं कह सकता कि प्रेम क्या है, वैसे ही ध्यान को परिभाषित करना
कठिन है. मन जब विशाल हो जाता है, मन में कोई दुराव नहीं होता, छल नहीं होता,
आग्रह नहीं होता, उहापोह नहीं होती, मन बस खाली होता है तभी ध्यान घटता है. इच्छा
मन को दूषित करती है, पैदा होते ही मन में तरंगें उठने लगती हैं, पूरा करने का
प्रयास शुरू हो जाता है. यदि पूरी होती नहीं दिखे तो कैसी अशांति का अनुभव होता
है. कितनी भी निर्दोष इच्छा क्यों न हो मन की समता भंग कर जाती है. लेकिन जो मन
ध्यान का अभ्यासी है वह तुरंत समता में आ जाता है. उसे समता के अतिरिक्त कुछ नहीं
चाहिए. इच्छा पूरी हो या न हो वह अपनी समता खोना नहीं चाहता. वह जानता है आज एक
बात तो कल दूसरी बात कारण बनेगी और जब इच्छा पूर्ण हो भी जायेगी तब लगेगा यह न भी
होती तो क्या फर्क पड़ने वाला था. बाहर कुछ भी बदले वह व्यर्थ ही है, भीतर का बदलना
ही वास्तविक है और भीतर का बदलाव बाहर पर निर्भर नहीं करता, वह ज्ञान, प्रेम और
ध्यान पर निर्भर करता है.
ब्रह्म - ज्ञान का है अभियान समता में रहना है ध्यान ।
ReplyDeleteबोधगम्य - प्रस्तुति ।
भीतर में बदलाव ही सब कुछ है। हमें अपने जीवन में सब कुछ भीतर ही तलाशना होता है।
ReplyDeleteसुकून भरा पोस्ट।
स्वागत व आभार शकुंतला जी व राहुल जी !
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