जनवरी २००८
जो प्रेम घटता-बढ़ता रहता
है, वह आसक्ति है. जिस प्रेम में कभी परदोष देखने की भावना नहीं होती, जिसमें कोई
अपेक्षा नहीं होती, जो सदा एक सा रहता है, वह शुद्ध प्रेम है. थोड़ा सा भी मोह यदि
भीतर है तो अपेक्षा रहती है, ऐसा प्रेम सिवाय दुःख के क्या दे सकता है ? दुःख का
एक कतरा भी यदि भीतर हो, मन का एक परमाणु भी यदि विचलित हो तो मानना होगा कि
मूर्छा टूटी नहीं है. बाहर का संसार जब प्रभावित न करे, क्रोध, मान, माया, लोभ जब
न रहें तब हमें सभी निर्दोष दिखते हैं.
बिल्कुल सच कहा ...
ReplyDeleteस्वागत व आभार सदा जी..
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