Tuesday, October 4, 2011

दिव्यता


मई २००२

मन को नींद से जगाना है, शोध करते-करते ही बोध होता है. मन की गांठ जब तक नहीं खुलेगी तब तक अज्ञान नहीं मिटता और अज्ञान मिटे बिना ईश्वर का अनुभव भी नहीं होता. राग, द्वेष, अहंता, ममता आदि जीव की सृष्टि में हैं ईश्वर की सृष्टि में नहीं. अपनी प्रकृति तथा स्वभाव के अनुसार हम प्रेरित हो रहे हैं और सुख-दुःख का अनुभव कर रहे हैं. अपने तुच्छ स्वभाव को दिव्य स्वभाव में बदलना ही साधना है, और यही जागरण है, जिसके बाद ही हम मानव होने की गरिमा को प्राप्त होते हैं. 

2 comments:

  1. bahut sahi likha hai ....apne man se roz hi ladana padta hai ....
    abhar.

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  2. अनीता जी ..आज आपकी डायरी के पन्ने पलटने बैठ गयी ...अपने मन के भावों को शब्द मिलते देख बेहद सुकून मिला...पता नहीं कितनी देर से इन रत्नों को भर रही हूँ अपनी झोली में ...बहुत आनंद का अनुभव कर रही हूँ.... शुक्रिया ....

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