Thursday, March 28, 2013

तू प्यार का सागर है


जून २००४ 
संतजन कहते हैं, सुख को पकड़ना नहीं है, सुख तो स्वाभाविक है, उसे पकड़ने जायेंगे तो वह  दुःख में बदल जायेगा. दुःख को भी पकड़ना भी नहीं है, उसे पकड़ने से वह बढ़ जायेगा, उसे भी छोड़ना है, वह कम हो जायेगा. दुःख का जाना भी स्वाभाविक है और जो बचेगा वह सहज सुख ही होगा. इच्छा को पूरी करने का ज्वर जब चढ़ता है तो दुःख बढ़ता है, इच्छा को समर्पित कर देना है, यदि वह श्रेयस्कर होगी तो अपने आप पूरी हो जायेगी, इच्छा का त्याग करते ही सुख आता है. मन का सहज स्वभाव तो आनंद ही है, कोई भी विक्षेप होता है तो वह ढक जाता है, उसके दूर होते ही पुनः मन अपने सहज स्वरूप में आ जाता है. जो सहज है, वही सुखकर है, ईश्वर की उपस्थिति उसी आनंद में ही सम्भव है. वह हमें सहज प्राप्य है, वह सागर है, हम तरंगों, बुलबुलों, लहरों, बुदबुदों की तरह हैं, हम उसी से बने हैं और उसी में हैं. हमारी आस्था का केन्द्र वही है, वह यही चाहता है कि हम उसे अपने भीतर पहचानें.

4 comments:


  1. सर्व -कालिक परम सत्य यही है जीवन का जो आपने इन पन्नों में सहज रूप कह दिया है .

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  2. इच्छा को पूरी करने की चाह ही तो दुःख बढ़ता है,इच्छा का त्याग करते ही सुख आ जाता है

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  3. इच्छा का त्याग करते ही सुख आता है.

    परम सत्य

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  4. वीरू भाई, धीरेन्द्र जी व रमाकांत जी स्वागत व आभार !

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