सृष्टि का बीज भीतर है, जिसका विस्तार बाहर है. बाहर जो कर्म हमने किये, उनके फल-रूप में सुख-दुःख मिले. हर सुख-दुःख के फल में छिपे थे बीज. हम अनजाने में विषैले बीज बोते रहते हैं. जब बाहर क्रोध, वैमनस्य और घृणा की फसल लहलहाती है, तब दुःख मनाते हैं. भीतर दुःख रूपी फल से निकले उदासी के बीज हैं, कुछ पीड़ा के भी. हर बार दुखी होने पर द्वेष या घृणा करने पर हम बोते रहे उन्हीं के बीज, और हर बार सुखी होने पर मुस्कानों के. तभी अकारण ही कभी-कभी मुस्कानें भी फूटती हैं भीतर से, किन्तु दो दुखों के मध्य एक छोटा सा सुख तृप्ति तो नहीं दे पाता. हम यदि सचेत होकर सुख, शांति, करुणा और प्रेम के बीज ही बोयें तो क्या जीवन में वही नहीं पनपेंगे।
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