मानव को यदि अपनी उलझनों का समाधान चाहिए तो भीतर मिलेगा। मन की गहराई में जो शुद्ध चैतन्य है, जो सत् है, आनंद है, उसके सान्निध्य में मिलेगा। बाहर जगत में उलझाव है, प्रतिस्पर्धा है, तनाव है, बाहर सब कुछ निरंतर बदल रहा है। सागर में उठी लहरों की तरह जग निरंतर विनाश को प्राप्त हो रहा है। भीतर एक अवस्था ऐसी है जो सदा एकरस है, उसमें टिके बिना पूर्ण विश्रांति नहीं मिलती। वहाँ जाने में बाधा क्या है ? स्वयं के और दूसरों के बारे में हमारी धारणाएँ, मान्यताएँ और विचार ही सबसे बड़ी बाधा हैं। वह निर्विकल्प अवस्था है, मन कल्पनाओं का घर है। वहाँ प्रेम का साम्राज्य है, मन जगत में दोष देखता है। जब हम जगत को जैसा वह है पूर्ण रूप से वैसा ही स्वीकार करके मन को कुछ समय के लिए ख़ाली कर देते हैं तब उस शांति का अनुभव अपने भीतर करते हैं।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-05-2022) को चर्चा मंच नाम में क्या रखा है? (चर्चा अंक-4420) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
Deleteबहुत ही सुन्दर चिंतनीय लेखन
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
ReplyDeleteचिंतन देता दर्शन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कुसुम जी !
Deleteविचारोत्तेजक लेख। आपने सही कहा कि हम लोगों को देखकर उन्हें अपनी धारणाओं के हिसाब से फिट करने की कोशिश करते हैं जिस कारण उस व्यक्ति के असल रूप को पहचान नहीं पाते हैं। अपने पूर्वग्रहों से निजाद पाकर ही सही तौर पर चीजों का अनुभव ले पाएंगे।
ReplyDeleteसही है, स्वागत व आभार !
Delete