जीवन अमूल्य है, परमात्मा का उपहार है, वही इसका आधार भी है. हमें उसे ही जानना है जो इस देह और मन के भीतर ज्योति जलाकर बैठा है. यह जगत शरीर को चलाने और परमात्मा का ज्ञान पाने के लिए एक साधन है. परमात्मा सद्गुरु के रूप में बार-बार धरा पर अवतरित होते हैं. कृपा की फुहार बरसाते हैं. कृपा का अनुभव होते ही साधक का जीवन एक उत्सव बन जाता है. गूंगे की मिठाई की तरह यह अनुभव अंतर को रस से भर देता है. तब भीतर उजाला ही उजाला भर जाता है, जिसमें सभी कुछ स्पष्ट हो जाता है, कहीं कोई संशय नहीं रहता. यदि हम उसे अपने जीवन रूपी रथ को हांकने के लिए कहें तो वह तत्क्षण तैयार हो जाते हैं. वह हमारी चेतना की मूर्छा को दूर करते हैं. जीवात्मा रूपी अर्जुन जब-जब परमात्मा रूपी कृष्ण को अपना गुरु बनाता है तो वह उसे प्रेरित करते हैं, ज्ञान प्रदान करते हैं, ध्यान की विधि बताते हैं. अनेकों उपायों से वह साधक की सुप्त चेतना को जागृत करते हैं. अहंकार का आवरण दूर होते ही सत्य का साक्षात्कार होता है.
जीवन संदर्भ को परिभाषित कर ज्ञान का संचयन करता उत्तम लेखन ।अभिवादन दीदी ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
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