Saturday, April 22, 2017

मुक्त यहाँ स्वयं से ही होना

२३ अप्रैल २०१७ 
अपने ही संस्कारों में बंधे-बंधे हम जीवन को एक संघर्ष बना लेते हैं. हमें अच्छी तरह ज्ञात है, हमारे लिए कैसा भोजन उचित है, किस मात्रा में उचित है पर संस्कार वश उसी भोजन को हम ग्रहण करते हैं जो आज तक करते आ रहे हैं और जिसके कारण स्वास्थ्य पर असर पड़ा है. क्रोध करने से सदा ही हानि उठायी है पर संस्कार वश उन्हीं  बातों पर पुनः-पुनः झुंझला जाते हैं. यही तो बंधन है और दूसरा कोई बंधन नहीं है जिसे साधना के द्वारा हमें खोलना है. अपने ही मन के बनाये जाल को तोडकर भीतर एक ऐसी शुद्ध सत्ता को जन्म देना है जो किसी भी तरह के आग्रह से मुक्त हो, जो सहज ही अपना हित चाहने वाली हो, जिससे अहित होने का कोई डर ही न रहे, अन्यथा हम स्वयं ही अपने शत्रु बन जायेंगे और दोष भाग्य अथवा परिस्थिति पर ड़ाल देंगे. स्वयं के हर भाव, विचार और कर्म की जिम्मेदारी लिए बिना हम मनुष्य होने के अधिकारी नहीं हो सकते. 

No comments:

Post a Comment