Wednesday, May 22, 2013

जिस मरने से जग डरे


सितम्बर २००४ 
मृत्यु को जीतने का अर्थ है, मृत्यु के भय पर विजय पाना, अपने भीतर अमृत तत्व को पाने का अर्थ भी यही है, आत्मा ही व अमृत है जिसे हमें अपने मन रूपी सागर से मंथन करके निकालना है. हमारे शरीर में जो चेतन तत्व है वह हर काल व हर देश में एक सा है, उसे जान लेने पर शरीर का उतना महत्व नहीं रह जाता, ठीक है वह शरीर के माध्यम से कार्य कर रहा है, मन, बुद्धि आदि उसके सहायक हैं, पर वह कार्य कर ही क्यों रहा है ? वह स्वयं को जानने के लिए ही कार्य कर रहा है, आत्मा से ही आत्मा को जाना जा सकता है. वह मन, बुद्धि से परे है , पर इनके न रहने पर, शरीर के न रहने पर वह स्वयं को जान भी नहीं सकता. यह एक पहेली जैसा लगता है पर यही तो माया है. जीव ही ब्रह्म है यह जानने के लिए उसे माया का आवरण पार करना ही है. एक खेल है जो युगों-युगों से खेला जा रहा है, इस खेल में रोमांच भी है, आनन्द भी है, साहस भी है. जीव, माया को ही लक्ष्य मानकर भटकता रहता है, फिर सद्गुरु का उपदेश पाकर वह स्वयं को बदलता है और ब्रह्म को जानने का प्रयास करता है.

10 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (२३-०५-२०१३) को "ब्लॉग प्रसारण-४" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

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  2. सार्थक सन्देश ...!!

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  3. मृत्यु अटल सत्य है और निश्चित भी फिर भय कैसा ????

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  4. मृत्यु अटल सत्य है........सार्थक सन्देश ...!!

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  5. जीव ही ब्रह्म है यह जानने के लिए उसे माया का आवरण पार करना ही है. एक खेल है जो युगों-युगों से खेला जा रहा है, इस खेल में रोमांच भी है, आनन्द भी है, साहस भी है. जीव, माया को ही लक्ष्य मानकर भटकता रहता है, फिर सद्गुरु का उपदेश पाकर वह स्वयं को बदलता है और ब्रह्म को जानने का प्रयास करता है.

    जीव ब्रह्म नहीं है आत्मा सो परमात्मा भी नहीं है .

    भक्ति मार्ग की बातें

    (१ )आत्मा सो परमात्मा ,शिवोहम शिवोहम .

    क्या है यथार्थ इस कथन का तर्क की कसौटी पर?

    एक तरफ कहतें हैं सबका मालिक एक .परमात्मा एक ही है .दूसरी तरफ कहते हैं आत्मा सो परमात्मा .वह कण कण में है .फिर तो सात अरब परमात्मा हो जायेंगे क्योंकि विश्व की आबादी सात अरब हो गई है आगे और भी परमात्मा पैदा होंगें .जबकि परमात्मा तो अजन्मा है नाम रूप से न्यारा है निराकार है .फिर कण कण में कैसे हो सकता है कण तो स्थूल है .न्यूटन ने तो पृथ्वी को ही एक कण की संज्ञा दे दी थी .

    आत्मा सो परमात्मा नहीं हो सकता क्योंकि हम कहतें हैं परमात्मा सर्व आत्माओं का पारलौकिक पिता है .पुत्र पिता जैसा तो हो सकता है ,पिता नहीं हो सकता अपना .

    आत्मा परमात्मा के गुणों से तो संपन्न हो सकती है ,सुख शान्ति आनंद प्रेम से युक्त हो सकती है इन गुणों का असीम सागर नहीं हो सकती .परमात्मा नहीं हो सकती .शिवत्व तो हो सकता है उसमें वह शिव नहीं बन सकती .परमात्मा की शक्ति असीम रहती है कभी कम नहीं होती .आत्मा कमज़ोर हो जाती है ,विकार ग्रस्त होकर .यहाँ तक के एक व्यक्ति आवेश में आकर दूसरे का खून भी कर देता है .अब यदि आत्मा सो परमात्मा है तो यह किसका कर्म माना जाएगा उस व्यक्ति का या उसमें मौजूद परमात्मा का ?यदि परमात्मा उस व्यक्ति में भी है तो क्या वह निरपेक्ष भाव से ह्त्या होते देखता रहेगा इतना कमज़ोर है परमात्मा ?

    शिव परमात्मा तो जन्म मरण से न्यारा है .सुख दुःख से परे है .

    आत्मा सुख दुःख अनुभूत करती है शरीर में आती है अनेक बार .परमात्मा का कोई शरीर नहीं है .एक कल्प (अनादि काल चक्र )में सिर्फ एक बार उसका साधारण मनुष्य तन में अवतरण है .पुरानी दुनिया को नया बनाने के लिए .

    यूं दोनों का स्वरूप एक है परमात्मा को ज्योतिर -लिंगम कहा गया है आत्मा भी दीपक की लौ स्वरूप है मस्तक में चमकता चमकीला सितारा है .लेकिन आत्मा सो परमात्मा कहना सर्वथा गलत है .

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  6. जीव ही ब्रह्म है ?

    ब्रह्म में कैसे लीन होइयेगा .ब्रहम लोक तो रहने की जगह है ब्रह्म पूरी (सूक्ष्म वतन )ब्रह्मा के रहने की जगह है .चाँद सितारों के पार जो इससे भी परे है वह परमधाम है।मुक्ति धाम है .परलोक है . कहा भी गया है -पार ब्रह्म परमेश्वर यानी तुम सबके स्वामी ....जो ब्रह्म लोक के भी पार है वहां परमात्मा का निवास स्थान परम धामहै ,परमात्मा वहीँ है आत्मा उसमे लीन (विलीन )नहीं हो सकती ,लौ लगा सकती है याद कर सकती है उसे .

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  7. "जीव ही ब्रह्म है यह जानने के लिए उसे माया का आवरण पार करना ही है. एक खेल है जो युगों-युगों से खेला जा रहा है, इस खेल में रोमांच भी है, आनन्द भी है, साहस भी है. जीव, माया को ही लक्ष्य मानकर भटकता रहता है, फिर सद्गुरु का उपदेश पाकर वह स्वयं को बदलता है और ब्रह्म को जानने का प्रयास करता है."

    अनीता जी यदि जीव ही ब्रह्म है फिर वह उसे जानने का प्रयत्न क्यों कर रहा है .ठीक है आत्मा शरीर धारण करते ही कर्म बंधन से बंध जाती है ,विकार ग्रस्त होने लगती है देहभान से .लेकिन ब्रह्म कैसे हो सकती है आत्मा .आत्मा तो ज्योति (स्वरूप )है परमात्मा (परम ज्योति )की मानिंद .दोनों का स्वरूप एक ही है .ब्रह्म महत छटा तत्व है पञ्च तत्वों (जल, वायु ,अग्नि ,आकाश ,धरती )से परे ,साकारी दुनिया ,सूरज ,चाँद तारागण ,नीहारिकाओं से भी परे .यही आत्मा का स्थाई और मूल निवास स्थान है तमाम आत्माएं अपने अर्जित कर्मों के अनुरूप यहाँ से ही उतर कर शरीर धारण करतीं हैं .

    ब्रह्म तत्व को ही ब्रह्मलोक ,मुक्तिधाम ,परमधाम ,शान्ति धाम कह दिया गया है .मुक्ति तो किसी बिध हो न सके पार्ट तो बजाना ही है ड्रामा में .समय आने पर .

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    1. वीरू भाई, सर्वप्रथम आपका हार्दिक आभार ! जीव ही ब्रह्म से इतना ही तात्पर्य लेना चाहिए कि जो गुण जैसे- प्रेम, शांति, आनन्द, प्रेम, सुख, ज्ञान,पवित्रता तथा शक्ति ब्रह्म में हैं वही आत्मा में भी हैं, लेकिन हम उन्हें भुला बैठे हैं, ध्यान में हमारे ये संस्कार जो गहरे में हमारे भीतर हैं, उभरने लगते हैं.

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  8. राजेन्द्र जी, मनोज जी, अनुपमा जी, अरुणजी आप सभी का स्वागत व आभार !

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