Tuesday, March 21, 2017

होना भर ही जब आ जाये

२२ मार्च २०१७ 
हम स्वयं को उस क्षण सीमित कर  लेते हैं जब केवल उपाधियों को ही अपना होना मान लेते हैं.  आज हर कोई अपनी पहचान बनाने में लगा है, वह जगत के सामने स्वयं को कुछ साबित कर के अपनी पहचान बनाना चाहता है, मानव यह भूल जाता है यह पहचान उसे अपने वास्तविक स्वरूप से बहुत दूर ले जाती है. कोई अध्यापक तभी तक अध्यापक है जब तक वह कक्षा में पढ़ा रहा है, कोई वकील तभी तक वकील है, जब वह मुकदमा लड़ रहा है, किन्तु उसके अतिरिक्त समय में वह कौन है, हम कितनी भी उपाधियाँ एकत्र कर लें, भीतर एक खालीपन रह ही जाता है . बाहर की उपाधियाँ चाहे हमें  बौद्धिक व भावनात्मक सुरक्षा भी दे दें, किन्तु उसके बाद भी हमारी तलाश खत्म नहीं होती जब तक हमें अपनी अस्तित्त्वगत पहचान नहीं होती. जब हम स्वयं को मात्र होने में ही स्वीकार कर लेते हैं, उस क्षण भीतर एक सहजता का जन्म होता है, अब सारा जगत अपना घर लगने लगता है.

2 comments:

  1. हम सब के भीतर अद्भुत आकाशगंगा है. बाहर के जीवन में लोग कुछ नाम, पद, शोहरत-दौलत को हासिल कर सबकुछ भूल जाते हैं. लगता है कि अब बस इतना ही है दुनिया में. यही सोच आत्मघाती है.. इससे अलग जो इंसान उस आकाशगंगा में उतरता है, तो हर पल आनंद व ईश्वर को समीप पाता है.

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  2. वाह ! भीतर के उस चिदाकाश का कितना सुंदर वर्णन..आभार !

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