Tuesday, January 21, 2020

जीवन का जो लक्ष्य साध ले



सन्त और शास्त्र हमें समझाते हैं कि मन को विकारों से मुक्त करें, परमात्मा का नाम भजें और जिस काम के लिए मानव जन्म मिला है उसे करने में अपना समय लगाएं. सुबह से शाम तक हमारा समय नौकरी करने, भोजन करने, विश्राम करने में ही निकल जाता है. जो समय हाथ में रहता है वह टीवी, अख़बार, मोबाईल आदि में चला जाता है. कभी घूमने में तो कभी सिनेमा आदि देखने में या रिश्तेदारों और मित्रों से मिलने में चला जाता है. इन सब कार्यों में कितनी बार अनचाहा होता है तो मन उदास होता है, क्रोध से भर जाता है, कभी झुंझलाहट से और कभी द्वेष से. मन जब पूरी तरह प्रसन्न होता है ऐसे क्षण भी आते हैं पर वे टिकते नहीं. इसी तरह जीवन गुजरता जाता है और एक दिन जीवन की साँझ आ जाती है. परमात्मा से जिसने नाता जोड़ा ही नहीं उसे उसके नाम स्मरण में कैसे आनन्द आएगा, जिसने कभी मन को समझा ही नहीं, वह मन के पार जाकर शांति का अनुभव कैसे कर पायेगा, इसीलिए वृद्धावस्था आते ही रोग पकड़ लेते हैं. अधिकांश रोगों का संबंध मन से होता है, मन यदि सहज रूप से प्रसन्न रहना नहीं जानता, वह तनावपूर्ण स्थिति में रहता है, तनाव से ही देह में जहरीले रसायनों का जन्म होता है और शरीर भी अस्वस्थ हो जाता है. बचपन से ही यदि हम बच्चों और युवाओं को ध्यान, स्मरण आदि से जुड़ना सिखाएं तो उनका जीवन अंतिम श्वास तक खुशियों से भर रह सकता है.

6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.01.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3589 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  2. जीवन का जो लक्ष्य साध ले
    पढ़ कर अच्छा लगा, अन्यथा तो-

    मन पछितैहै अवसर बीते।
    दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते।।
    सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।
    हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥
    सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
    अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥

    आभार इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए।

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    1. आभार इस सार्थक प्रतिक्रिया हेतु !

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    1. स्वागत व आभार विभा जी !

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