मन की गागर को जितना भी भरा जाये, वह खाली ही रहती है. वास्तव में मन की पेंदी ही नहीं है और हम एक असाध्य कार्य में लगे हैं. कोई संगीत से इसे भरना चाहता है तो कोई सुस्वादु भोजन से, कोई विभिन्न स्थानों की सैर करके तो कोई बड़ा सा घर बनाकर, कोई किताबों में उस रिक्तता का हल खोजता है तो कोई दिन रात काम में व्यस्त रहकर भीतर के खालीपन को भुलाना चाहता है. सन्त और शास्त्र कहते हैं मन का स्वभाव ही अपूर्णता है. यदि कोई जीवन की पूर्णता का अनुभव वास्तव में करना चाहता है तो उसे मन के इस स्वभाव को जानना होगा, मन नाम ही उसी का है जो सदा डोलता रहता है, कभी वर्तमान में ठहरता ही नहीं. हमने स्वयं को मन के साथ इस तरह एक कर लिया है कि उसकी अपूर्णता को हम स्वयं की अपूर्णता मान बैठे हैं. ध्यान में ही हमें मन से स्वयं का अलगाव महसूस होता है और विचारों को देखना हम सीखते हैं. ध्यान का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते एक अवस्था ऐसी आती है जब विचारों का हम पर कोई प्रभाव नहीं रहता, वे आकाश में आने जाने वाले बादलों की तरह आते और जाते हैं. आगे जाकर हम देखते हैं कि विचारों को हम किस तरह क्षण भर में परिवर्तित कर सकते हैं. चिंता, तनाव आदि शब्द तब बेमानी हो जाते हैं. एक ही विचार को बार-बार मन में लाना ही तो चिंता है, जब हम नकारात्मक विचार आते ही उसे बदल दें तो मन हमारे नियंत्रण में आ गया. अब उसे भरने की फ़िक्र नहीं करनी है क्योंकि हम सदा ही पूर्ण हैं.
सच है।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
ReplyDeleteबहुत सार्थक सन्देश।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Delete