Monday, March 14, 2022

नीर-क्षीर-विवेके हंस

कौआ चला हंस की चाल तो भूला अपनी भी और हुआ हाल-बेहाल, यह कहावत तो हमने कई बार सुनी है और इसका सामान्य अर्थ भी सभी जानते हैं; यदि इसका आध्यात्मिक  अर्थ जानना हो तो हम मन की तुलना कौए से कर सकते हैं और हंस की आत्मा से। हंस को नीर-क्षीर विवेकी कहा जाता है, वह जल मिले दूध से जल को छोड़कर केवल दूध ग्रहण कर लेता है। मन के पास यह विवेक नहीं होता। अक्सर हम मन की इच्छा को आत्मा की पुकार समझकर मन के बहकावे में आ जाते हैं। मन का झुकाव नकारात्मकता की ओर अधिक होता है, यदि कोई दस अच्छे काम करे पर एक ग़लत तो मन उस एक पर ही अपना ध्यान केंद्रित करता है, निरंतर कौए की तरह राग अलापता है पर उसमें कोई सार नहीं होता। आत्मज्ञानी बुरे से बुरे व्यक्ति में भी कोई न कोई अच्छाई ढूँढ लेता है, क्योंकि उसका ध्यान सदा सकारात्मकता की ओर ही होता है, वह हंस की तरह शांत रहता है और ज्ञान के मोती चुनता है।मन से की गयी भक्ति और श्रद्धा डोलती रहती है, विपत्ति आने पर वह मंदिरों के चक्कर लगाता है पर सुख के समय सब भूल जाता है। आत्मा सहज प्रेम स्वरूप है, उसमें टिकना ही भक्ति है। मन द्वंद्व का दूसरा नाम है, जहाँ दो हैं, वहाँ चुनाव भी होगा और संघर्ष भी, इसलिए भौतिकतावादी लोग जीवन को एक संघर्ष मानते हैं। आत्मा में एक ही है, वहाँ अद्वैत है, इसलिए आत्मज्ञानी जीवन को उत्सव कहते हैं। 


5 comments:

  1. वाह सुंदर प्रस्तुति

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  2. बहुत बहुत आभार !

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  3. आध्यात्मिक सा चिंतन ।
    गहन सारगर्भित।

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  4. चिंतनशील और प्रभावी

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