सन्त कहते हैं, प्रेम ही वह सूत्र है जिसे पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं. तभी हम जान पाते हैं कि सभी प्राणी अस्तित्त्व का ही अंश हैं, इससे किसी का कोई विरोध नहीं है. जब कोई प्रेमपूर्ण हो जाता है तो ध्यान पूर्ण भी हो जाता है. जब वह आँख भर कर अपने को देखता है तो पाता है कि वह ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं. अपने को मिटाने पर अपने में ही यह पता चलता है कि वह नहीं है और वैसे ही पता चलता है कि केवल परमात्मा है. वह भौतिक देह है यह सोचना ही आँखों पर पड़ा पर्दा है. ध्यान में वही मिटता है जो है ही नहीं. जो है वह कभी मिटता ही नहीं. जब तक मन अशांति से ऊबे नहीं तब तक झूठ-मूठ ही खुद को बनाये रखना चाहता है, अहंकार की यात्रा जब तक तृप्त नहीं होती तब तक सीमित ‘मैं’ नहीं मिटता !
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