रूस और यूक्रेन के मध्य हो रहे युद्ध का आज सत्ताईसवां दिन है। विनाश की इस लीला को सारा विश्व देख रहा है पर कोई भी कुछ कर नहीं पा रहा है। इसे रोकना तो दूर समझौते की बात भी कहीं चल नहीं रही है। इससे बड़ी मानवीय त्रासदी भला क्या होगी ? दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सरकारों को यह समझ में आया था कि युद्ध कितने भयावह हो सकते हैं, इतने वर्षों तक सभी देशों ने संयम से काम लिया किंतु आज कुछ देशों की विस्तारवाद,साम्राज्यवाद और प्रभुत्व वाद की नीतियों के कारण भय, आशंका और संदेह के बादल सब ओर घिर गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी मूक दर्शक की तरह देख रही हैं। एक ही धरती के बाशिंदे होकर दो देश इस तरह लड़ रहे हैं जैसे जन्मों के दुश्मन हों। यूक्रेन के शहरों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया है।एक करोड़ से अधिक लोग अपने घरों से विस्थापित हो गये हैं। आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अधर में है, जब वे आज के हालातों के बारे में जानेंगे, क्या उनके भीतर प्रतिशोध की भावना का जन्म नहीं होगा? प्रेम की जगह हिंसा की भावना से ही उनका पोषण हो रहा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति को राजनीति और राजधर्म की समझ होती तो अपनी निर्दोष जनता को इस तरह नरक में ना धकेलते। इंटरनेट नहीं दिया जा रहा यह कहकर मानवाधिकारों की बात करने वाले लोग आज चुप बैठे हैं जबकि लाखों लोगों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।युद्ध धरती के किसी भी भाग में हो उसकी आँच से कोई भी नहीं बचा रह सकता। हम अंधे, बहरे हो जाएँ शतुर्मुर्ग की तरह आँखें मूँद ले या रेत में मुँह छिपा लें तब ही इसकी भीषणता से मुख मोड़ सकते हैं। फिर यही कहकर मन को समझा लेते हैं कि जब से दुनिया बनी है, युद्ध होते रहे हैं, यह कोई अनहोनी तो नहीं हो रही, अर्थात मानव ने न सीखने की क़सम खा ली है। हर दिन जो इतने हथियारों का निर्माण होता है उनके उपयोग के लिए भी तो कोई स्थान और समय चाहिए, कभी न कभी उनका इस्तेमाल होगा यही सोच कर हथियार बनाए जाते हैं। इक्कीसवीं सदी में इतनी बर्बरता को देखकर मानवीय मूल्यों की सब बातें कितनी खोखली लगती हैं।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-03-2022) को चर्चा मंच "कवि कुछ ऐसा करिये गान" (चर्चा-अंक 4378) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
संक्षेप में आपने स्तब्ध सामान्य आदमी की व्यथा व्यक्त कर दी. आदमी जैसा ढकोसला इस धरती पर कोई और नहीं. दूध से धुला नाटो ज़ेलेंसकी को उकसाता है. जैविक प्रयोगशाला भी बनता है. सदियों से साथ जीने वाली कौम को आपस में लड़ा दिया. अब सब मिल कर केवल पुतिन को हिटलर बता रहे हैं. मुद्दा क्या है, जिसकी इतनी भरी कीमत चुकी जा रही है, ये आज तक समझ नहीं आया.
ReplyDeleteसटीक लेख...जैलेंस्की हो या पुतिन राष्ट्रपति तो क्या नेता कहलाने के लायक भी नहीं...। जैलेंस्की पूरा देश तबाह होते देखकर भी देशभक्ति का दम भर रहा है और पुतिन हजारों जवानों की जान की बजी लगा जीत का दम भर रहा है...मानवता और इंसानियत से परे घृणित राजनीति...
ReplyDeleteइन्सानियत का कत्लेआम खुल कर हो रहा है …विश्वयुद्ध व परमाणु अटैक का खतरा सिर पर मंडरा रहा है . सोच कर ही रूह काँप जाती है .काश जल्द ही बन्द हो ये युद्ध.
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