संत कहते हैं, इस जगत के और हमारे भी केंद्र में जो होना चाहिए, वह ईश्वर है. असल में वह जगह तो भगवान की है; किंतु आज उसकी जगह को अहंकार ने घेरा हुआ है. मुल्कों के अहंकार ने, शासकों के अहंकार ने। अहंकर केवल सेवक है, पर मानव भूल गया है कि वह ईश्वर की सत्ता के कारण अपना काम कर रहा है. मानव इस मूलभूत तथ्य को भूल गया है और मनमानी करता है; तब उसे लगता है कि जगत सुंदर नहीं है, जगत में कितने अत्याचार हो रहे हैं. जबकि मानव ने स्वयं प्रकृति को स्वयं कितना नुक़सान पहुँचाया है. कुछ लोग यह सोच कर कि इस कष्ट का अंत कभी नहीं होगा; जीवन से भाग जाते हैं, आत्महत्या तक कर लेते हैं। वे जगत को सुंदर बनाने का कोई प्रयत्न नहीं करते. जो सत्य के पथ पर चलेगा उसका कल्याण होगा, उसे ही सौंदर्य की अनुभूति होगी। सत्यं शिवं सुंदरं के इस छोटे से सूत्र में यह संदेश चिरकाल से मानव को दिया गया है। विध्वंस तब होता है जब मानव कुछ और करना नहीं चाहता तब भगवान के पास कोई विकल्प नहीं रहता. युद्ध कोई समाधान नहीं है, यह मानव की अंतिम मंज़िल नहीं हो सकती, इसके बाद शांति और मेल-मिलाप की सारी यात्रा पुनः करनी होगी। हमें अहिंसा को पुनः परम धर्म के रूप में स्थापित करना है। लक्ष्य यदि सम्मुख हो तो हमें राह मिलने लगती है। धरती को मानव ने दूषित किया है अब उसे ही सुधारना है। आज भारत के ज्ञान के प्रभाव से विश्व में परिवर्तन हो रहा है, अब ईश्वर के बताये मार्ग पर अनेक लोग चलने को उत्सुक हैं. वह दिन दूर नहीं जब भारत की बात सुनी जाएगी और सतयुग का सब जगह दर्शन होगा।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-10-22} को "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:"(चर्चा अंक-4585) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
Deleteलक्ष्य यदि सम्मुख हो तो हमें राह मिलने लगती है। धरती को मानव ने दूषित किया है अब उसे ही सुधारना है।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कविता जी!
Deleteचिंतन परक सृजन
ReplyDeleteस्वागत व आभार अभिलाषा जी !
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