सारा अस्तित्त्व एक अनाम आकर्षण
में बंधा हुआ है, आकाशीय नक्षत्र आपस में जिस बल के कारण गति कर रहे हैं वह अवश्य
ही प्रेम जैसा कोई तत्व होगा. प्राणियों का परस्पर मेल-मिलाप भी उसी का परिणाम है.
हर आत्मा में प्रेम का तत्व उसी तरह गर्भित है जैसे फूल में सुरभि. फूल के खिलने
पर ही सुगंध का ज्ञान होता है. इसी तरह प्रेम जब अपनी परम अवस्था को प्राप्त होता
है, तब भक्ति कहलाता है. प्रेम उन मूल तत्वों में से एक है जिनसे इस सृष्टि का
निर्माण हुआ है. अंतर को जो सुवास से भर देता है. प्राणों में जो गति का संचरण
करता है. मन में कोमल भावनाओं का सृजन कर जीवन का मर्म बता देता है, ऐसे अस्तित्त्व
के प्रति आत्मा झुके नहीं तो क्या करे.
प्रेम का भक्ति हो जाना ही तो कृष्ण हो जना है ...
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