Wednesday, November 1, 2017

पार लगें इस भव सागर से

१ नवम्बर २०१७ 
संत कहते हैं, नाम-रूप का यह जगत मिथ्या है, सत्य है इसके पीछे का आधार, जिससे इसकी उत्पत्ति होती है. जैसे मिट्टी से बने बर्तन मिटटी ही हैं, व्यवहार करने के लिए उनमें नाम रूप की कल्पना की जाती है. सागर में जल रूप होने पर भी तरंग, फेन, बूंद आदि नाम व रूप के कारण पृथक कहे जाते हैं. मन में उठने वाले विचार, संकल्प-विकल्प, स्मृति, भावनाएं, कामनाएं, विकार सब मन ही हैं. मन से ही उत्पन्न हुए वे मन में ही समा जाते हैं और हम उन्हें सत्य मानकर सुखी-दुखी होते रहते हैं. मन में ही जन्मों के संस्कार पड़े हैं, जिनके कारण सुखद या दुखद संवेदना उठती है, उन्हें समता भाव से देखकर चले देने जाने के बजाय हम सत्य मानकर उनके अनुसार अच्छे या बुरे कर्म करने लगते हैं, जिनका फल फिर भविष्य में भोगना पड़ता है और जिनके संस्कार फिर गहरे होते जाते हैं. इसी का नाम संसार है जिससे साधक को मुक्त होना है. उपाय है कि ध्यान के द्वारा हम मन को साक्षी भाव से देखना सीख लें और बादलों की तरह आते-जाते विचारों के द्रष्टा भर बन जाएँ.   

5 comments:

  1. बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

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  2. बहुत अच्‍छे भाव पि‍रोए हैं।

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    1. स्वागत व आभार रश्मि जी !

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  3. सुना है कि, विधिः विधान और विधाता के बीच कोई नहीं आ सकता है, तो यही एक बेहतर उपाय है ठीक तरह से विधि-विधान के साथ समाधान करके जीवन जीने का धन्यवाद जी 🙏

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    1. स्वागत व आभार अशोक जी !

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