५ नवम्बर २०१७
भगवद्गीता
में श्रीकृष्ण कहते हैं, स्वधर्म में मरना भी पड़े तो ठीक है परधर्म नहीं अपनाना
चाहिए. स्वधर्म का अर्थ यदि हम बाहरी संप्रदाय को लेते हैं, तो उचित नहीं जान
पड़ता. स्वधर्म का अर्थ है निज धर्म यानि आत्मा का सहज धर्म. देह, मन, बुद्धि आदि
का धर्म ही परधर्म है. आत्मा शांति, प्रेम और आनंद स्वरूप है. आत्मा अविनाशी,
अविकारी है. यदि कोई स्वयं को देह मानकर मरने वाला समझता है तो यही परधर्म को
अपनाना है. मन मानकर सुख-दुखी होता है या बुद्धि मानकर हानि-लाभ की भाषा में सोचता
है तो वह अपने स्वधर्म से विचलित हो गया. कोई यदि स्वयं को अनंत, स्थिर और विमल
मानता है तो ही वह आत्मा के धर्म वाला अर्थात स्वधर्म में स्थित कहा जायेगा.
बेहतरीन अनिता जी स्वधर्म को बखूबी अंकित किया है ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार ऋतू जी !
Deletevery nice
ReplyDeleteस्वागत व आभार नीतू जी !
Deleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार राजेश जी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! विचार
ReplyDeleteस्वागत व आभार ध्रुव जी !
Deleteआत्म तत्व ज्ञान आधारित मनुष्य जीव सिर्फ मानते ही नहीं अव्वल दर्जे के नागरिक की तरह अनुभूति के आधार पर जानते भी है और यह अलौकिक अनुभूति करने पर मनुष्य जीव का जीते-जी दुसरा जन्म होता है जीस में मरण नहीं सिर्फ स्मरण ही होता है मैं कौन हूं के साक्षात्कार की अनुभूति से जी, बहुत बढ़िया सुंदर सकारात्मक ऊर्जा उठीं मन में आपके लेखन द्वारा गुरु कृपा से धन्यवाद सुप्रभात जी 🙏
ReplyDeleteस्वागत व आभार अशोक जी !
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