१५ दिसम्बर २०१८
उपनिषदों में कहा गया है, जिसे जानकर मनुष्य कृत-कृत्य हो जाता
है, प्राप्त–प्राप्तव्य हो जाता है, ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है, वह आत्मा का ज्ञान
है. शास्त्र हमें नवीन जीवन दृष्टि देते हैं. स्वयं का, जगत का प्रकृति का और
परमात्मा का ज्ञान कराते हैं. हमारे कर्म उन धारणाओं पर आधारित होते हैं जो हमने
स्वयं, जगत व परमात्मा के बारे में अपने भीतर बनाई होती हैं. यदि हम स्वयं को
सीमित देह मानते हैं तो भय तथा असुरक्षा से घिरे ही रहेंगे. जगत के साथ हमारा
संबंध भी प्रतिद्वन्दता का होगा. परमात्मा हमें दूर प्रतीत होगा. यदि असीम आत्मा
मानेंगे, तो उसमें सब कुछ समाहित हो जायेगा, जगत अपना आप ही प्रतीत होगा, भय का
कोई कारण ही नहीं रहेगा. इसी प्रकार यदि हम स्वयं को मन, बुद्धि मानते हैं तो
सुख-दुःख के झूले में झूलते ही रहेंगे, क्योंकि मन सदा एक सा नहीं रहता, छोटा सा
आघात भी उसे हिला देता है और ज्यादा सुख को भी वह सह नहीं पाता. बुद्धिगत ज्ञान
हमें सांसारिक सुविधाएँ तो दिला सकता है पर आन्तरिक संतुष्टि से हम दूर ही बने
रहते हैं. स्वयं का असली परिचय ही हमें सदा समता में रख सकता है, जिससे एक न खत्म
होने वाली अटूट शांति और सहजता हमारे जीवन का अंग बन जाती है.