Saturday, May 21, 2022

कैसे हाथ बंटाए जग में

 यह जगत तब तक ही जगत जैसा दिखायी देता है, जब तक स्वयं को जगत से पृथक मानते हैं. जब हम भीतर एक को जान लेते हैं तब इस जगत से पृथकता का अनुभव नहीं करते. एक ही चेतना हर जगह व्याप्त है, जो भिन्न-भिन्न रूप धारण कर रही है; तब न किसी को पाने की इच्छा, न खोने का भय, जीवन से स्वार्थ सिद्धि लुप्त हो जाती है. स्व में सारा जगत समा जाता है. तब किसी के दोष देखने की प्रवृत्ति का भी नाश हो जाता है, क्योंकि आत्मरूप से सब एक में ही स्थित हैं और जगत रूप से सभी कुछ परिवर्तित हो रहा है. जैसे स्वयं के मन, बुद्धि आदि विकारों का शिकार होते हैं, वैसे सभी के साथ होता है. जगत परमात्मा का क्रीड़ा स्थल है, यहाँ उसके इस आयोजन में अपना हाथ बंटाना भर है, अपना नया खेल आरंभ नहीं करना है ! 


2 comments:

  1. ज्ञानवर्धक आलेख !!

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  2. स्वागत व आभार अनुपमा जी !

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