नदी पर्वत से निकलती है तो पतली धार की तरह होती है, मार्ग में अन्य जल धाराएँ उसमें मिलती जाती हैं और धीरे-धीरे वह वृहद रूप धर लेती है. अनेकों बाधाओं को पार करके सागर से जब उसका मिलन होता है, वह अपना नाम और रूप दोनों खोकर सागर ही हो जाती है. जहाँ से वह पुनः वाष्पित होगी और पर्वत पर हिम बनकर प्रवाहित होगी. जीवन भी ऐसा ही है, शिशु का मन जन्म के समय कोरी स्लेट की तरह होता है।पहले माता-पिता उसके शिक्षक बनकर फिर विद्यालय में शिक्षक और गुरूजन उसके मन को गढ़ने में अपना योगदान देते हैं. अच्छे मार्गदर्शन को पाकर एक व्यक्ति जीवन में अपार सफलता प्राप्त करने में सक्षम हो पाता है। एक शिक्षक का अंत:करण अनेक विचारों, मान्यताओं व धारणाओं को अपने भीतर समेटे होता है. वह शिष्यों की योग्यता का अनुमान लगाकर उन्हने उनकी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर देता है। वह स्वयं भी जीवन भर सीखता रहता है और सदा उत्साहित बना रहता है। ऐसा तभी सम्भव है जब मन भी नदी की भांति निरंतर बहता रहे, किसी पोखरी की भांति उसका जल स्थिर न हो जाये. ऐसा मन जब ज्ञान के अपार सागर में खोकर अहंकार को विलीन कर दे तभी महान शिष्यों का निर्माण कर सकता है।
बहुत सही कहा अनीता जी , व्यक्ति को आजीवन सीखते रहना चाहिये ..सीखने में गुरु ही सहायक होता है . सही और अच्छा गुरु मिलना भी परम सौभाग्य की बात है
ReplyDeleteस्वागत व आभार गिरिजा जी !
Deleteविचारणीय आलेख, अनिता दी।
ReplyDeleteस्वागत है ज्योति जी!
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