जीवन में जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है, कोई अभाव नहीं खटक रहा होता. शरीर स्वस्थ होता है और कोई आर्थिक समस्या भी नहीं होती तब मानव ईश्वर को याद नहीं करता. वह यदि नित्य की पूजा में बैठता भी है तो उसकी प्रार्थनाओं में गहराई नहीं होती. वह फूल भी अर्पित करता है और उसके मन्दिर में घन्टा भी बजा देता है पर उसके मन में कोई कोई आतुरता नहीं होती. दुःख में की गयी प्रार्थना हृदय की गहराई से निकलती है. दुःख व्यक्ति को अपने करीब ले आता है, वह ईश्वर से जुड़ना चाहता है. वह उसकी कृपा का भागी होना चाहता है; किंतु उसका संबंध क्योंकि आत्मीय नहीं बना है, उसे आश्वासन मिलता हुआ प्रतीत नहीं होता। सन्त कहते हैं, सुख या दुःख दोनों के पार है परम सत्य, उसे अपने जीवन का आधार मानते हुए हर पल उसके प्रति कृतज्ञता की भावना रखनी चाहिए. उसकी उपस्थिति से ही हमारे प्राण जीवित हैं, रक्त प्रवाहित हो रहा है. हमें वाणी मिली है. हमारा होना ही उससे है. जीवन में आने वाले सुख-दुःख हमारे स्वयं के कर्मों के परिणाम हैं. वह साक्षी मात्र है. जब हमारे जीवन का केंद्र उसके प्रति कृतज्ञता के निकट स्थित होगा तब मन के सजगता पूर्ण होने के कारण कर्म सहज होंगे और उनका परिणाम भी दुखदायी नहीं होगा. सुख-दुःख तब समान हो जाएंगे और जीवन एक खेल की भांति प्रतीत होगा.
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
ReplyDeleteइसीलिए तो कहा गया है - 'सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोय!' ... और फिर अनीता जी, दु:ख में भी प्राणी सच्चे भाव से आराधना नहीं करता। सही कहा है आपने। सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसही है, भाव यदि सच्चा हो तो प्रार्थना तत्क्षण स्वीकार होती है, स्वागत व आभार !
Deleteजी, धन्यवाद!
Deleteसही लिखा ,ईश्वर को सद्भाव से ही पूजना चाहिए
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
Deleteगहन विचार लिए बहुत सुंदर लिखा दी।
Deleteसादर
स्वागत व आभार अनीता जी!
Deleteकबीर वाणी को विस्तार देते सार्थक भाव सृजन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कुसुम जी !
Deleteमानव को कष्ट में ही, मदद लेने की याद आती है अन्यथा किसी की याद की आवश्यकता ही नहीं चाहे भगवान हो या मित्र !
ReplyDeleteकुछ हद तक आपकी बात सही है, शायद तभी रिश्तों की नींव मज़बूत नहीं हो पाती, आभार!
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