Wednesday, December 14, 2011

प्रेय और श्रेय

अगस्त २००२ 
मन जब भी उद्विग्न होता है कारण वही एक ही होता है. भीतर कोई इच्छा जन्मती है और जब तक वह पूरी नहीं होती मन कुरेदता रहता है. मन को अच्छी न लगे कोई ऐसी बात कह दे तो उसे ही समझाने लगता है. कोई बाधा बने तो क्रोध भी आता है. अर्थात मन पर हमारा नियंत्रण नहीं है, इसी बात की कसक भीतर रहती है. प्रेय और श्रेय दो प्रकार के कर्म हैं. प्रेय, जो क्षणिक सुख देते हैं, जो कार्य हमें प्रिय हैं चाहे वह श्रेष्ठ न भी हों, श्रेय वे हैं जो आरम्भ में सुखद न लगते हों पर अंततः सुखद होते हैं, जिन्हें कर के हमें कभी पछताना नहीं पड़ता. भक्त व साधक को तो श्रेय कार्य ही करने हैं, सजग रहना है. किसी के दोष देखना व समझाना भी छोड़ना होगा. व्यर्थ का चिंतन, व्यर्थ की वाणी, व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को दूर करना होगा. क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना. ईश्वरीय मार्ग पर चलने की इच्छा ही अपने आप में तृप्तिदायक है, आरम्भ में मध्य में और अंत में भी यह सुखद है. यह हमें मुक्त करती है, जैसे वह परमात्मा मुक्त है

5 comments:

  1. मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना. ईश्वरीय मार्ग पर चलने की इच्छा ही अपने आप में तृप्तिदायक है, आरम्भ में मध्य में और अंत में भी यह सुखद है. यह हमें मुक्त करती है, जैसे वह परमात्मा मुक्त है bilkul sahi kaha hai aapne.man bahut chanchal hota hai ishvareey maarg par chalkar hi uspar vijay paai ja sakti hai.

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  2. आपकी बातों में बहुत दम है ... पर ये सब आसान नहीं होता ... साधना बस साधना .... आसान नहीं ..

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  3. मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना...
    गहन चिंतन .

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  4. व्यर्थ का चिंतन, व्यर्थ की वाणी, व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को दूर करना होगा. क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना.bahut badi baat hai ye

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  5. राजेश कुमारी जी, रश्मि प्रभा जी, राजपूत जी आभार! दिगम्बर जी, साधना मुश्किल है तभी तक, जब तक हमने उस पर चलना शुरू नहीं किया...और फिर यदि हो तब भी, कठिन काम करके ही बेशकीमती को पाया जा सकता है.

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