२७ दिसम्बर २०१७
शंकर कहते हैं, ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’. जैसे कोई कहे वस्त्र
सत्य है उस पर पड़ी सिलवटें मिथ्या हैं, धागा सत्य है उस पर पड़ी गाँठ मिथ्या है
अथवा तो सागर सत्य है, उसमें उठने वाली लहरें, झाग व बूंदें मिथ्या. सिलवटें,
गाठें, लहरें और बूंदें पहले नहीं थीं, बाद में भी नहीं रहेंगी, वस्त्र, धागा और
सागर पहले भी थे और बाद में भी हैं. इसी तरह हमकह सकते हैं, मन सत्य है उसमें उठने
वाले विचार, कल्पनाएँ, स्मृतियाँ मिथ्या हैं, जो पल भर पहले नहीं थीं और पल भर में
ही खो जाने वाली हैं. विचार की उम्र कितनी अल्प होती है यह कोई कवि ही जानता है,
एक क्षण पहले जो मन में जीवंत था, न लिखो तो ओस की बूंद की तरह ही खो जाता है. आनंदपूर्ण
जीवन के लिए हमें सत्य को देखना है, इस बदलते रहने वाले संसार के पीछे छिपे सत्य
परमात्मा को अपना अराध्य बनाना है.
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