२० दिसम्बर २०१७
मन ही माया है. सृष्टि जैसी है वैसी ही यह देखने नहीं देता. जैसे
सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखाई पड़ता है वैसे मन के द्वारा छली गयी आत्मा
को जगत में दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं. मन अपनी मान्यताओं और कल्पनाओं के जाल में
उलझ कर जगत को वैसा ही दिखाता है जैसा वह देखना चाहता है. ध्यान है मन के पार जाने
की कला, स्वयं को अपने मूल रूप में जानने और कुछ पलों के लिए उसमें स्थित होकर
शक्ति पाने की कला. भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, मेरी माया के पार जाना हो तो मेरी
शरण में आना होगा. कृष्ण की शरण में ध्यान में ही जाया जा सकता है. स्तुति, जप
अथवा श्वासों पर मन को टिकाना, किसी भी विधि का उपयोग करके मन को स्थिर किया जा
सकता है और शांत और एकाग्र हुआ मन ही स्वयं में विश्राम कर पाता है. विश्राम के
क्षणों में प्राप्त हुई शांति उसे सुकृत्य के लिए प्रेरित करती है.
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