इस परिवर्तनशील जगत में यदि कोई जन सुखपूर्वक जी सकते हैं तो उन्होंने जीने की कला सीख ली है। कुछ आवश्यक सूत्र हृदयंगम कर लिए हैं। अस्तित्त्व को प्रेम किए बिना हम जगत के साथ सामंजस्य नहीं बना सकते। परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना जिस तत्व से की है वह प्रेम है। उसे हर परमाणु में प्रकट करना और महसूस करना ही योग है।कण-कण में वही समाया है, का अर्थ है कि परमात्मा की उस करुणामयी शक्ति ने ही स्वयं को जगत रूप से प्रकट किया है। हमें पहले अपने हृदय में उस तत्व को खोजना है और फिर उसे विराट के साथ जोड़ना है। सृष्टि और सृष्टि कर्ता तब दो नहीं रह जाते और संत उसी में आनंदपूर्वक निवास करते हैं। कृष्ण की मुस्कान जीवन की कोई परिस्थिति छीन नहीं सकती। अपार कष्टों में भी राम यह भीतर जानते हैं कि लीला है, और उनके चेहरे का भाव राज्य पाने और राज्य त्यागने में स्थिर रहता है। इस समता को पाने की साधना ही योग है।
सब श्रीकृष्ण और उनकी माया है और मध्य में योग है मात्र सेतु , पार होने का !
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण ! सुन्दर प्रगटन ! अभिनन्दन !
स्वागत व आभार!
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