जाने-अनजाने हम सभी अपनी नियति की ओर बढ़ रहे हैं । नियति जो हमने खुद गढ़ी है; हमारे अपने कर्मों द्वारा, कर्म जो हमरी कामनाओं का परिणाम हैं। इस देह, मन, बुद्धि में जो शक्ति निहित है उसे जगाकर आत्मस्वरूप शिव से मिलना एक साधक की नियति है। हमारे भीतर जो ईश्वरीय चेतना है वह अपने मूल स्वरूप से जुड़ना चाहती है। प्रेम की तलाश इसी के कारण है, आनंद, शांति व पूर्णता की तलाश इसी के कारण है। हर व्यक्ति कुछ न कुछ पाना चाहता है ताकि वह पूर्ण हो सके, यह अधूरापन उसे सालता है। यह तलाश तब तक पूरी नहीं होती जब तक आत्मशक्ति अनंत से एकाकार न हो सके। दूसरे अंशों में अनंत का एक अंश होने के कारण हर आत्मा स्वयं की मुक्तता का अनुभव करना चाहती है, जो अभी देह व मन की सीमाओं में रहने के कारण बँधा हुआ महसूस करती है। यदि वह अपने निर्णय पूर्व संस्कारों के कारण न ले, आदतों के कारण न ले, विकारों के कारण न ले, मित्रों, परिवार व समाज के दबाव में न ले, बल्कि अपने कल्याण की भावना से स्वयं के लिए हितकर मार्ग पर चलने का साहस जुटा पाए तो वह अपने लक्ष्य को पा सकती है। अनंतता उसका लक्ष्य है और सीमा उसकी वर्तमान अवस्था, इसे तोड़कर वह अपने पूर्ण सामर्थ्य का अनुभव कर सकती है।
बहुत अच्छी चिंतन प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वागत व आभार कविता जी!
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