जीवन दो से बना है। यहाँ दिन के साथ रात, सुख के साथ दुःख भी है। देह से जो सुख लिया है, उसकी क़ीमत दुःख से चुकानी पड़ती है। आँखों ने सुंदर दृश्य दिखाए, एक वक्त आता है जब नयन धुंधला जाते हैं। नासिका ने हज़ारों सुगंधियों की खबर दी है, किसी वक्त वह खबर देने से मना कर सकती है, बंद-बंद रहती है। स्वाद चखे होंगे अनेक जिह्वा से, पर कभी कोई स्वाद ही नहीं आता या बिगड़ ही जाता है ज़ायक़ा मुख का। घुटनों ने भी जवाब देना है एक दिन, दाँतों ने भी गिर कर साथ छोड़ना है। कर्ण ऊँचा सुनने लगते हैं। दिल है कि रह-रहकर धड़कता है। पूछता है, यह क्या हो रहा है ? किंतु आत्मा तब भी साक्षी बनी देखती है। वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करती, उसे एक उपकरण मिला था, जो अब पुराना हो रहा है, जिसमें टूट-फूट हो रही है, वह रहेगी जब तक सम्भव होगा, फिर त्याग जाएगी मुक्त पंछी की तरह ! देह के माध्यम से मन व्यक्त होता है, स्थूल का आश्रय लिए बिना सूक्ष्म व्यक्त नहीं हो सकता। बिजली के बल्ब के बिना प्रकाश कैसे होगा, तार में लाख बिजली दौड़ती रहे। वृक्ष हुए बिना फूल कैसे खिलेंगे, लाख जीवन शक्ति छिपी रहे बीज में। हाथों के बिना कैसे ग्रंथ लिखे जाएँगे, विद्वान मन में कितना विचार मंथन करते रहें। सूक्ष्म की अभिव्यक्ति स्थूल से संभव है। विचार स्थूल है, भाव सूक्ष्म; दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। सूर्य की धूप बाहर बिखरी हो पर कमरे के भीतर गर्मी के लिए हीटर चाहिए। परमात्मा हर जगह मौजूद है पर उसकी कृपा को अनुभव करने के लिए मन चाहिए। आत्मा मन से भी सूक्ष्म है, उसके गुण मन में प्रकट होते हैं और बाहर तरंगों के रूप में शांति का प्रसाद मिलता है। जीवन दोनों का समन्वय है।
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