जो नहीं है उससे हम
भयभीत रहते हैं, जो सदा है उससे अनभिज्ञ ही बने रहते हैं. सारा जीवन निकल जाता है
पर चेतना का स्पर्श नहीं हो पाता, और मन जो होकर भी नहीं है हमें भगाता रहता है.
इसीलिए मन रूपी संसार को शंकर माया कहते हैं. मन अँधेरे की तरह है, जिसका आरम्भ कब
से है पता नहीं, पर प्रकाश जलते ही उसका अंत हो सकता है, आत्मा सदा से है उसका अंत
नहीं होता. आखिर हम आत्मा से अपरिचित क्यों रहते हैं, क्योंकि हम पल भर भी खुद में
टिककर नहीं बैठते.
उसी टर्निंग पॉइंट के आते ही ज़िंदगी रोशन हो जाती है।
ReplyDeleteवाह ! कितना अद्भुत अनुभव..बधाई !
ReplyDeleteआनन्द - दायक अनुभूत - विचार । सुन्दर - प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजी*जी धन्यवाद 🙏 आप तत्वज्ञान आधार स्वयं*
ReplyDelete"*गु* " का अर्थ हैं -- *गुणातीत*
"*रू* " का अर्थ हैं -- *रूपातीत*
"*गुकारं*" *प्राकृतगुणातीतं*
"*रूकारं*" *अशुद्धमायारूपातीतम्*
*मंजिल मिले या तजुर्बा, चीजें दोनों ही नायाब है !!*
अहम् ब्रह्मास्मि...*ब्राह्मण ...I am DIVINE BRAIN...
मेरी अपनी अभी कोई पहचान नहीं है क्योंकि मैं आत्म-केन्द्रित,एकांत-प्रिय और प्रतिस्पर्धाओं से दूर रहना पसंद करता रहा हूँ.