इच्छा पूरी न हो तो दुःख होता है पर पूरी होने पर राग जगता है, जो नई कामना को जन्म
देता है. इस तरह सारा जीवन बीत जाता है, सर्वोत्तम यही है कि इच्छा उठते ही हम उसे
समर्पित कर दें, इससे मन खाली रहेगा, खाली मन में ही आत्मा की झलक मिलती है. जैसे
घड़े से जल निकाल दें तो उसका मूल आकाश स्वयंमेव भर जाता है वैसे ही मन का मूल
आत्मा है और आत्मा का मूल परमात्मा है, जो प्रेम स्वरूप है, उसका प्रेम भीतर भर
जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है. यह तो वह हीरा है जिसे असली जौहरी ही पहचान सकता
है. जो भीतर से भर जाता है उसे भरने के लिए संसार की निधियां नहीं चाहिए. वह सहज
ही संसार में जीना सीख जाता है.
इच्छाओं से मुक्त होना कठिन अवश्य है लेकिन स्व को पहचानने के लिए इस दिशा में प्रयास करते रहना आवश्यक है...
ReplyDeleteसही कहा है आपने..पर इच्छाओं से मुक्त नहीं होना है वे तो सहज ही उपजती हैं..उन्हें समर्पित कर देने से मन खाली रहता है..हमारा हर प्रयास तब सहज ही होता है
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