२४ जनवरी २०१९
एक संत कहते हैं और
कितना सही कहते हैं कि अन्य की गलती से जो दुखी हो जाता है, उससे बड़ा बुद्धिहीन
कोई नहीं है. यदि इस सूत्र को कोई हृदयंगम कर ले तो वह सदा के लिए सुखी रहना सीख
जाता है. हम सुबह से शाम तक अन्यों के कारण ही तो दुखी होते हैं, यदि अपनी गलती पर
दुखी हों तो कितनी शीघ्रता से खुद को बदल लें. जब तक हम संसार में व्यवहार कर रहे
हैं, द्वैत रहेगा ही, अन्य व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से हमें संबंध निभाना
होगा. हमारे प्रतिकूल हो ऐसे व्यवहार का हमें सामना भी करना पड़ेगा. ऐसे में यदि
हमें उनकी त्रुटि नजर आती है, और हम व्याकुल हो जाते हैं, तब तो इस जगत में
प्रसन्न रहने के अवसर बहुत कम रह जायेंगे. साधक वही है जो एक बार यह निश्चय कर
लेता है कि प्रसन्न रहना उसकी सबसे बड़ी साधना है, और यदि दुखी होना ही है तो कम से
कम बात अपने हाथ में तो हो, हमारी ख़ुशी ही यदि हम पर निर्भर न हो तो गुनगुनाते हुए
झरने और गाते हुए पंछी ही हमसे बेहतर हुए. साधक को दुःख केवल अपने समय, शक्ति और सामर्थ्य
का समुचित प्रयोग न कर पाने का होता है. वह स्वयं अन्यों के दुःख का कारण बनना
चाहता ही नहीं क्योंकि अज्ञानवश ही कोई ऐसा करता है. उसे तो ज्ञान की साधना करनी
है.
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