ज्ञान अनंत है, अज्ञान है उसमें से थोड़ा बहुत जानना और सब जानने का भ्रम पाल लेना. हमारी इन्द्रियां सीमित हैं, मन के सोचने की क्षमता भी सीमित है. बुद्धि के तर्क की भी सीमा है, पर ज्ञान की कोई सीमा नहीं. आत्मा की क्षमता असीम है लेकिन असीम को जानकर भी असीम शेष रह जाता है. पुस्तकालयों में किताबें बढ़ती ही जा रही हैं, एक व्यक्ति पूरे जीवन में उनका एक अंश भी नहीं पढ़ सकता. योग के द्वारा मन, इन्द्रियों व प्राण की शक्ति को किसी हद तक बढ़ाया जा सकता है. बुद्धि के पार जाकर उस एकत्व का अनुभव किया जा सकता है, जहाँ प्रकृति अपने रहस्य खोलने लगती है. योगी विचारों की शक्ति से ऐसे-ऐसे कार्य कर लेते हैं कि सामान्य जन उन्हें चमत्कार कहते हैं.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-11-2022) को "दोहा छन्द प्रसिद्ध" (चर्चा अंक-4613) पर भी होगी।--
ReplyDeleteकृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteज्ञान और योग में यही तो फर्क है 'ज्ञान असीमित है और योग असीमित को भी सिमित कर खुद में समाहित कर लेना"
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर बात कही है आपने,सादर नमन अनीता जी
स्वागत व आभार कामिनी जी !
Deleteसचमुच आदरणीया योग और ध्यान से क्या संभव नहीं !
ReplyDeleteसादर वन्दे !
स्वागत व आभार तरुण जी !
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteस्वागत व आभार अभिलाषा जी!
Deleteजागरूकता के साथ-साथ रुझान में सकारात्मक बदलाव आ रहा है
ReplyDeleteस्वागत व आभार गगन जी!
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