महर्षि अरविंद के अनुसार वैसे तो सारा जीवन ही योग है; किंतु एक साधना पद्धति के रूप में योग आत्म-पूर्णता की दिशा में एक व्यवस्थित प्रयास है, जो अस्तित्व की सुप्त, छिपी संभावनाओं को व्यक्त करता है। इस प्रयास में मिली सफलता व्यक्ति को सार्वभौमिक और पारलौकिक अस्तित्व के साथ जोड़ती है।
श्री अरविंद का विश्वास था कि मानव दैवीय शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना है। इसीलिए वे मस्तिष्क को 'छठी ज्ञानेन्द्रिय' मानते थे।वह कहते थे शिक्षा का प्रयोजन इन छ: ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग करना सिखाना होना चाहिए।उनके लिए वास्तविक शिक्षा वह है जो बच्चे को स्वतंत्र एवं सृजनशील वातावरण प्रदान करती है तथा उसकी रूचियों, सृजनशीलता, मानसिक, नैतिक तथा सौन्दर्य बोध का विकास करते हुए अंतत: उसकी आध्यात्मिक शक्ति के विकास को अग्रसरित करती है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-11-2022) को "देवों का गुणगान" (चर्चा अंक-4603) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteमहर्षि अरबिंदो आधुनिक युग के महान स्वप्नदर्शी दार्शनिक और पथ-प्रदर्शक थे.
स्वागत व आभार!
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी पढ़वाने हेतु।
स्वागत व आभार !
Delete