जब तक हम सुख-दुःख के भोक्ता बनते हैं, मान-अपमान हमें प्रभावित करता है, तब तक हम मन के तल पर ही जी रहे हैं। आत्मा साक्षी है, वहाँ न सुख है न दुःख, एकरस आनंद है। न अपमान का भय है न मान की आकांक्षा, वह साक्षी सदा एक सी किंतु सहज अवस्था है। वह दिव्यता का एक अंश है जो हमारा वास्तविक स्वरूप है, पर जो अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष के आवरण में छिपा हुआ है, जिसे आनंदमय कोष भी कहते हैं। स्वयं के भीतर उसे अनुभव करना और विश्व आत्मा या परमात्मा के साथ एक हो जाना ही हर साधना का लक्ष्य है; अर्थात पहले हमें अपने भीतर उस दिव्य तत्व को अनुभव करना है फिर कण-कण में उस दिव्यता का अनुभव करना है। हर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के पीछे वही एक सत्ता है, इसका अनुभव सीधे-सीधे नहीं हो सकता। पहले गुरू में उसके दर्शन होते हैं फिर स्वयं में तथा फिर जगत में, इसके बाद साधक जीते जी मुक्ति का अनुभव करते हैं। सारे बंधन मन के स्तर पर ही अनुभव में आते हैं।
श्रीमद भगवद गीता में स्वयं परमात्मा कहते है
ReplyDeleteमन-मुक्त तो आत्मा मुक्त , जो वैसे मुक्त ही है सदा
सुन्दर कथन , अभिनन्दन !
जय श्री कृष्ण जी !
जय श्री कृष्ण !
Delete