जैसे एक दुनिया बाहर है, हमारे भीतर भी एक संसार है. स्वप्नों में हमारा मन जिन लोकों में विचरता है, वह अवचेतन का जगत है. ध्यान में योगी इस जगत को अपने भीतर देख लेते हैं. आत्मा को इन्द्रियों की जरूरत नहीं है, वह आँखों के बिना भी देख सकती है, कानों के बिना सुन सकती है, इसी तरह सूँघने, चखने व स्पर्श का अनुभव भी कर सकती है. हमारा जीवन कई आयामों पर एक साथ चल रहा है. देह के भीतर न जाने कितने प्रकार के जीवाणु हैं, जिनके जीवन और मृत्यु पर हमारा जीवन टिका है. सूक्ष्म कोशिकाएं हैं, जिनमें से हर एक स्वयं में पूर्ण है तथा अन्य कोशिकाओं से संयुक्त भी है. एक तरह की कोशिकाएं मिलकर ऊतक बनाती हैं, जिनसे अंग बनते हैं, वे अंग फिर एक तरह का संस्थान बनाते हैं. जिसे चलाने के लिए कुशलता व बुद्धि की आवश्यकता है, जो उनमें ही विद्यमान है. वह बुद्धिमत्ता उनमें ईश्वर द्वारा प्रदत्त ही मानी जा सकती है. हमारे प्राण शरीर को भी हम कितना कम जानते हैं. शरीर में होने वाली सब गतियां इन्हीं के कारण होती हैं. भोजन का पाचन, रक्त का परवाह, छींक आना, पलकों का झपकना आदि सभी क्रियाएं प्राणों के कारण हो रही हैं. मन के तल पर तो मनुष्य के पास अनंत स्मृतियों का ख़ज़ाना है, न जाने वह कितने जन्मों की यात्रा करके आया है, जिनकी स्मृति भीतर क़ैद है। ज्ञान का एक अनंत भंडार भी हमारे विज्ञान मय कोश में है, जिसके पार आनन्दमय कोश है।इसलिए कहा गया है यथा पिंडे, तथा ब्रह्मांडे !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-11-2022) को "माता जी का द्वार" (चर्चा अंक-4615) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteवाह वाह!आलेख आध्यात्मिक भी और वैज्ञानिक भी
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
Deleteवाह!गहन भाव सुंदर सृजन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कुसुम जी!
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